Wednesday, August 21, 2013

धमारा घाट

अन्धश्रद्धा की पटरी में
सरपट दौड़ रहे
हमारे अपने
आज फिर
पैतीस की संख्या में
समा गये
काल के गाल में,
जाने वाले चले गये
उनके लिये रोने वाले रो रहे हैं
और इस बीच
सिंकने लगीं हैं गर्म-गर्म रोटियाँ
राजनीति के तवे पर
मारना चाहता है केन्द्र बाजी
राज्य की प्रशासनिक कमजोरी दिखाकर
और राज्य वाले
भर रहे हैं हुँकार रेलवे हमारी नहीं
केंद्र की बपौती है ….
खैर, महाकाल! तुम तो आज फिर,
जरुर खुश हुए होगे पुनः
केदारघाटी की लीला के बाद ……
हाँ.… सच्ची जो है खबर
कि अभी-अभी
बिहार के खगड़िया जिले के
धमारा घाट रेलवे स्टेशन पर 
हुए रेल हादसे में पैतीस कावड़ियों की मौत 
सैकड़ों गंभीर!!! 

(२१ अगस्त २०१३ की दोपहर बिहार के खगड़िया जिले में हुये धमारा घाट रेल्वे हादसे में ३५ से अधिक लोंगों की मौत हुई थी|)


                                         

Monday, July 15, 2013

आशंका

आज जब घर से निकलकर आ रहा था ऑफिस
तब सेक्टर के दो चौकीदारों ने ध्यान खीचा अपनी तरफ
एक पढ़कर सुना रहा था दूसरे को
अखबार में छपी उसके हिस्से की भविष्यवाणी ...
"बरतें वाहन चलाने में सावधानी"
तभी मैंने देखा गौर से उसके चेहरे को
जिस पर एकाएक डाल दिया है आशंकाओं ने डेरा
मेरे लग्जरी गाड़ियों वाले सेक्टर के मेन गेट के बाजू में
खड़ी खडखडिया साईकिल
जो शायद इसी गेट कीपर की होगी
संभवतः 'वाहन से हानि' वाली चिंता का कारण है ...

Tuesday, March 5, 2013

अनिर्णय

जीवन में जब आती है
अनिर्णय की स्थिति
इंसान हो जाता है
स्थिर, पूर्ण स्थिर
जड़वत, पाषण बनी आहिल्या की तरह। 
या कहिये स्थितिप्रज्ञ,
बोध को प्राप्त हुए सिद्धार्थ की तरह ।
मन होता है शून्यावस्था में
चेतन होते हुए भी अवचेतन ।
शरीर होता है
समस्त विकारों के बावजूद निर्विकार।
त्याग और मोह,
हार और जीत,
जीवन और मृत्यु के बीच फसे व्यक्ति की
इसी मनोदशा को तो नहीं कहते - कहीं निर्वाण ??

Friday, February 15, 2013

जीवन - साँपसीढ़ी जैसा

हम और हमारी जिन्दगी
साँपसीढ़ी का खेल ही तो है
जब हम बिल्कुल सौ वाले खाने के पास होते हैं
तभी निन्यानवे के खाने में
मुँह बाये बैठे साँप के फन में फस जाते हैं
और गिरते हैं धड़ाम से शून्य के डब्बे में ।
इसी गिरने को
ज्योतिष की भाषा में कहते हैं -अभाग्य ।
भाग्यवान होते हैं वह
जो बच जाते हैं निन्यानवे के खाने से ।
हम एक बार नहीं
कई - कई बार फसें हैं
इस निन्यानवे के घनचक्कर में ।
आज, एकबार फिर से गिरे हैं -धड़ाम से,
आज का गिरना है कुछ खास
क्योंकि, आज के गिरने में
अंदर से टूटते हुए काँच के मानिंद
खनखनाती आवाज आई है
कहीं यह मेरे "दिल" की आवाज तो नहीं ?
खैर! देखा है टी.वी. में अभी-अभी - एक ऐड
'जब फेवीकिव्क है तब खिलौनों के टूटने पर दुःख कैसा'।।।
                                             




Wednesday, February 13, 2013

आखिर क्यों???

क्यों ???
हजार ख़बरों के बाद भी
बिना खबर का लगता है दिन
जबकि सुबह के अखबार
भरे थे कुंभ के लाल छीटों से
फिर भी टी वी की धडाधड रिपीट हो रही ख़बरों में
क्यों नहीं जग रही थी कोई दिलचस्पी
आखिर क्यों???
शायद वर्तमान के कपाट पर उग आये
इस क्यों के उत्तर में
निरुत्तर है पूरा का पूरा ज़माना
तभी तो
आत्मप्रवंचना में पागल है हर इंसान ।
असंवेदना के धरातल पर खड़ा होकर
साबित कर रहा है 
अपने को अधिक श्रेष्ठ दूसरे से
(हर विधा का तरीका अलग है
 मगर मकसद एक)
साहित्य-मीडिया-राजनीति
सभी के किरदार
एक ही भावना से भावित
एक ही नेपथ्य में रंग-रूप बदलकर
असंवेदनशील भड़ुआ बने लग रहे हैं।