Wednesday, October 17, 2012

जब हम चंदले हुये ,,,,

छोटा सा ऑफिस
ढेर सारे काम
महत्वाकांक्षा के पालने में
झूलते सपने
और
इधर
जीवन की आपाधापी में
कब चाँद
काली कवरियां हटा
हो गया आवरण-विहीन
यह तो पता चला तब
जब सामने बैठे मित्र ने
अपने कैमरे से
अनजाने में उतार ली, हमारी ये तस्वीर.....

जाति! आखिर क्यों नहीं जाती?

मित्रो! मैं लिखता रहा हूँ संस्कारवश
अपने नाम के आगे अपना टाइटल
यानि, सिद्धार्थ प्रताप सिंह 'बघेल'
और बहुत कुछ इसी टाइटल के सहारे
होता रहा हूँ सम्मानित
अपने इलाके में, शायद,,,,
शिक्षा पूरी कर
जब आया कैरियर बनाने
इस महानगर में,
तो यहाँ की जिन्दगी के हिसाब से
सब कुछ सार्ट करना पड़ा
यहाँ तक की अपना नाम भी
अब सिर्फ - सिद्धार्थ प्रताप।
सिंह और बघेल
छूट गए
माँ और बाप
की तरह।
जिन्दगी और नाम
दोनों अधूरे
दौड़ते रहे
जीवन की पटरी पर
सरपट।
एक दिन
छपी मेरी एक कविता
प्रतिश्ठित साहित्यिक पत्रिका में,
सिद्धार्थ सिंह बघेल के नाम से।
पता नहीं,,,,, क्यों
प्रताप का भार
सम्पादक महोदय भी नहीं उठा पाए।
खैर! पहली बार
पत्रिका में छपने की ख़ुशी में
मैं, जा पंहुचा
अपने चिरपरिचित
प्रतिष्ठित विद्वान को दिखाने।
मगर, आज अचानक यह क्या,,,,
पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के नोयडा में
सामने बैठे सम्मानित महोदय ने
सौ बोल्ट का करेंट छोड़ा
कविता को दरकिनार कर,
'बघेल' टाइटल को लेकर,,,,,
वो???? तो तुम गडरिया हो,,,,,?
हम तो राजपूत समझ रहे थे।
'जी' जनाब आप सही समझ रहे थे
मैंने उत्तर दिया।
प्रतिउत्तर में
साहब ने विषाक्त मुस्कान छोड़ी,,,,
वर्षों के संबंधों की मीनार
अब ढह चुकी थी
जातीय भूकंप के
एक ही झटके में।
मित्रो! आज पहली बार
पल भर के जातीय अपमान ने
यह सोचने को मजबूर कर दिया था
कि, कैसे जीते होंगे
85% मेरे देश के लोग
हर पल जातीय दंश का
अपमान झेलते हुए,,,,,
धन्य हैं वे,,,
जो एक गडरिया को
ज्ञान के कारण
अपना देवता मानकर पूजते हैं,
और
धिक् हमें
कि, हम आज भी
जाति ही पूजते हैं ।
,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,
तभी तो बंधुओं !
वो तमावरण को चीरकर
प्रकाश के समुद्रतट में,
समृद्धि की लहरों का मजा ले रहें हैं।
और हम,
प्रकाश के ज्ञानालोक से टपककर,
दरिद्रता के दलदल में
फसते जा रहे हैं।
अफ़सोस !
हमारे समाज से ,,,
जाति! आखिर क्यों नहीं जाती?