Friday, February 15, 2013

जीवन - साँपसीढ़ी जैसा

हम और हमारी जिन्दगी
साँपसीढ़ी का खेल ही तो है
जब हम बिल्कुल सौ वाले खाने के पास होते हैं
तभी निन्यानवे के खाने में
मुँह बाये बैठे साँप के फन में फस जाते हैं
और गिरते हैं धड़ाम से शून्य के डब्बे में ।
इसी गिरने को
ज्योतिष की भाषा में कहते हैं -अभाग्य ।
भाग्यवान होते हैं वह
जो बच जाते हैं निन्यानवे के खाने से ।
हम एक बार नहीं
कई - कई बार फसें हैं
इस निन्यानवे के घनचक्कर में ।
आज, एकबार फिर से गिरे हैं -धड़ाम से,
आज का गिरना है कुछ खास
क्योंकि, आज के गिरने में
अंदर से टूटते हुए काँच के मानिंद
खनखनाती आवाज आई है
कहीं यह मेरे "दिल" की आवाज तो नहीं ?
खैर! देखा है टी.वी. में अभी-अभी - एक ऐड
'जब फेवीकिव्क है तब खिलौनों के टूटने पर दुःख कैसा'।।।
                                             




Wednesday, February 13, 2013

आखिर क्यों???

क्यों ???
हजार ख़बरों के बाद भी
बिना खबर का लगता है दिन
जबकि सुबह के अखबार
भरे थे कुंभ के लाल छीटों से
फिर भी टी वी की धडाधड रिपीट हो रही ख़बरों में
क्यों नहीं जग रही थी कोई दिलचस्पी
आखिर क्यों???
शायद वर्तमान के कपाट पर उग आये
इस क्यों के उत्तर में
निरुत्तर है पूरा का पूरा ज़माना
तभी तो
आत्मप्रवंचना में पागल है हर इंसान ।
असंवेदना के धरातल पर खड़ा होकर
साबित कर रहा है 
अपने को अधिक श्रेष्ठ दूसरे से
(हर विधा का तरीका अलग है
 मगर मकसद एक)
साहित्य-मीडिया-राजनीति
सभी के किरदार
एक ही भावना से भावित
एक ही नेपथ्य में रंग-रूप बदलकर
असंवेदनशील भड़ुआ बने लग रहे हैं।