Saturday, October 4, 2014

सवांद श्रीराम से

...नहीं होता माथे पर / सूर्यवंशियों का ताज
तो क्या हासिल कर पाते / जन-मानस में वह स्थान
जो मिला है तुम्हें आज / बोलो रघुवंशी श्रीराम !
नहीं होता तुम्हारे कांधे पर टंगा / तीरों से भरा तरकश
तो क्या कर पाते संधान / अपने दुश्मनों का ?
बोलो वीरता के प्रतीक / योद्धा श्रीराम !
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जानता हूँ -कि /  कुछ समय के लिए
उतार दिया था तुमने / माथे से मुकुट
मगर, क्या यह सच नहीं ?/ कि, ज्ञात था उन सबको
जो दर्ज किये गये इतिहास में / भालू और बंदरों के नाम से,
की, तुम / अयोध्या के निष्कासित सम्राट हो
जिसे निश्चित समय के बाद / फिर से मिल जाना राज-पाठ है।
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राम! सच कहूँ - / कि,
तुम्हारे युग में भी था लोगों में / सत्ता में भागीदारी करने का लालच ।
तभी तो / औरों की क्या
गिलहरी तक / फुदक-फुदककर
कर रही थी अहसान / सुनहरे भविष्य के लिए ।
.......
राम! जरा सोचो / कि तुम आज होते
बिल्कुल ठीक / मेरी तरह, मेरी जगह
तो क्या? / दर्ज करा पाते अपने बारे में
इतिहास के पन्नों में /  दो नेक शब्द ।
यदि, कहते हो हाँ / तो दया करके
मुझ पर भी / कर दो उपकार
बता दो वह रहस्य ।
..........
हाँ साक्षात् न अ सको / तो आ जाओ सपनों में किसी रात
भगवान जो हो न ......???