Monday, May 26, 2014

जंगल से जंगल की यात्रा…

जैसे मेरे गाँव के आदिवासी
बांधते थे, अधगीली-सूखी लकड़ियों के गठ्ठर
बिना किसी दया और सवेंदना के
पेट भरने वास्ते…
वैसे ही दिल्ली के
एम्स, ट्रामा, सफ़दरजंग के इमरजेंसी वार्डों के बाहर
भरे-पूरे असंवेदना के माहौल में
बंधते देखता हूँ गठ्ठर
जवान-लावारिश लहासों के
जो आये थे पेट भरने वास्ते
जंगल से महानगर पहुंचकर समझ गया हूँ
कि रहना होगा मुझे हर पल सजग-सावधान
क्योंकि अब मैं भयानक जंगल में घुस आया हूँ ...

 

Friday, May 2, 2014

क्रांति का संवाहक

सच, मानवीय संवेदना के अन्त का गवाह है,
यह मेरे महानगर का ‘कबाड़ बीनता बचपन’।
ठीक, इन्हीं महानगरीय गरीब बच्चों की तरह
मेरे गॉव के आदिवासी बच्चे भी
बनाकर अपनी -अपनी टोलियॉ
पकड़ा करते थे नदियों की धार में
छोटी-छोटी मछलियॉ,
बहते हुए चश्मों के पत्थर उठाकर
पकड़ते थे केकड़े,
और फिर- जंगली उपलों के जुगाड़ से
कीमियागिर के कीमियायी सा
कुछ बचाते कुछ जलाते
भूनकर
बड़ी चाव के साथ खाते
उन्हें देख
मेरा कवि हृदय
मन ही मन
मुस्कराया करता था।
लेकिन,
आज जब मैं विषमता की मारी
बचपन की उसी टोली को,
महानगर के पार्क में बैठकर
गन्दे कबाड़ की बोरियों के साथ
बंधे देखता हूँ -
तो सिहर उठता हूँ-
भविष्य की कल्पना मात्र से।
सच,
मेरी दोहरी मानसिकता से
हँसेंगे लोग,
क्योंकि-
दोनों ही बचपन में
समान स्तर पर है-
गरीबी,कुपोषण और अशिक्षा।
लेकिन,
मेरी नजरों में
समानता होते हुए भी
एक बड़ी असमानता है,
वह यह
कि-
मेरे गॉव का गरीब बचपन
अभी नही जान पाया है-
गरीबी और अमीरी की
विभाजन रेखा को।
शायद,
इसलिए कुछ हद तक
ग्रामीण समाज का अमीर तबका
इनके आक्रामक रव्वैये से
अभी कुछ और दिन
महफूज रह सकता है।
जबकि,
मैट्रो सिटी के
इस ‘आधुनिक कुपोषित बचपन‘ का
पार्क में
'अमीरी तोंद के सैर का हिस्सेदार‘ बने
बिलायती टॉमी के द्वारा
घूरकर देखा जाना,
मानो यह अहसास कराने के लिये
पर्याप्त है
कि-
‘वक्त रूपी देवता‘
विषमता की खाई को पाटने के लिए
‘क्रांति रूपी‘ पहिये को
घुमाने का इरादा बना चुका है।
शायद,
इसीलिये मुझे विश्वास हो रहा है,
कि-
‘भविष्य क्रांति‘ का संवाहक है,
यह मेरे महानगर का
‘कबाड़ बीनता बचपन‘।
(मेरी यह कविता कथाक्रम के (जुलाई-सितम्बर 2012) अंक में प्रकाशित हुई थी)