Saturday, November 10, 2012

केशव-कुंज नहीं जाऊँगा ..

नजर गड़ाए बैठे हैं
अपने ही बीच
अभी बहुत से जिन्ना
भगवा होकर
हिंदोस्ता में राज कायम करने के इरादे से,
वो दिन-रात मशगूल हैं
दंगे की योजना बनाने में
कभी केशव-कुंज तो कभी हिन्दू भवन में बैठकर,
बिन्दुवार योजना :-
 1) हिन्दुओं को भड़काकर दंगा करवाओ/
 2) भाजपा जितवाओ/
 3) पूर्ण बहुमत से अगर सरकार बन जाए तो हिन्दू राष्ट्र बनवाओ/
     और दो साल बाद-
4)ब्राह्मण एकता जिदाबाद के नारे लगाते हुए
 गैर-ब्राह्मणवादी हिन्दुओं को मनुशाश्त्र की पोथी थमाओ/
केशव-कुंज में
घोषित हिन्दू होने का भ्रम टूटा
जब मिश्रा जी अपने सहयोगी त्यागी जी को समझाईस दे रहे थे
कि काश हम ब्राह्मणों में पूर्ण एकता हो जाती
तो वह दिन दूर नहीं
जब संसद में हमारा कब्ज़ा होता
मैं एकाएक-
अपने आपको अल्पसंख्यक महसूस करने लगा था
इन बहु-संख्यकों के बीच में,
खिन्नता के साथ बस इतना कह पाया
भाई कुछ सीखो अमेरिका से,,
और बाया डी,टी,सी,
घर चला आया
मन ही मन सोचते हुए
की अब कभी केशव-कुंज नहीं जाऊँगा  ....
अब बयान कलमबद्ध करते हुए
सोच रहा हूँ
कि कल त्यागी भी
अपने को ठगा महसूस करेगा
जब,
मिश्रा या तिवारी
शर्मा या शुक्ला में से कोई
अपनी बिरादरी की दुहाई देते हुए
ताज के लिए
छटपटाएगा ,,,,,,
                               

  

Wednesday, October 17, 2012

जब हम चंदले हुये ,,,,

छोटा सा ऑफिस
ढेर सारे काम
महत्वाकांक्षा के पालने में
झूलते सपने
और
इधर
जीवन की आपाधापी में
कब चाँद
काली कवरियां हटा
हो गया आवरण-विहीन
यह तो पता चला तब
जब सामने बैठे मित्र ने
अपने कैमरे से
अनजाने में उतार ली, हमारी ये तस्वीर.....

जाति! आखिर क्यों नहीं जाती?

मित्रो! मैं लिखता रहा हूँ संस्कारवश
अपने नाम के आगे अपना टाइटल
यानि, सिद्धार्थ प्रताप सिंह 'बघेल'
और बहुत कुछ इसी टाइटल के सहारे
होता रहा हूँ सम्मानित
अपने इलाके में, शायद,,,,
शिक्षा पूरी कर
जब आया कैरियर बनाने
इस महानगर में,
तो यहाँ की जिन्दगी के हिसाब से
सब कुछ सार्ट करना पड़ा
यहाँ तक की अपना नाम भी
अब सिर्फ - सिद्धार्थ प्रताप।
सिंह और बघेल
छूट गए
माँ और बाप
की तरह।
जिन्दगी और नाम
दोनों अधूरे
दौड़ते रहे
जीवन की पटरी पर
सरपट।
एक दिन
छपी मेरी एक कविता
प्रतिश्ठित साहित्यिक पत्रिका में,
सिद्धार्थ सिंह बघेल के नाम से।
पता नहीं,,,,, क्यों
प्रताप का भार
सम्पादक महोदय भी नहीं उठा पाए।
खैर! पहली बार
पत्रिका में छपने की ख़ुशी में
मैं, जा पंहुचा
अपने चिरपरिचित
प्रतिष्ठित विद्वान को दिखाने।
मगर, आज अचानक यह क्या,,,,
पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के नोयडा में
सामने बैठे सम्मानित महोदय ने
सौ बोल्ट का करेंट छोड़ा
कविता को दरकिनार कर,
'बघेल' टाइटल को लेकर,,,,,
वो???? तो तुम गडरिया हो,,,,,?
हम तो राजपूत समझ रहे थे।
'जी' जनाब आप सही समझ रहे थे
मैंने उत्तर दिया।
प्रतिउत्तर में
साहब ने विषाक्त मुस्कान छोड़ी,,,,
वर्षों के संबंधों की मीनार
अब ढह चुकी थी
जातीय भूकंप के
एक ही झटके में।
मित्रो! आज पहली बार
पल भर के जातीय अपमान ने
यह सोचने को मजबूर कर दिया था
कि, कैसे जीते होंगे
85% मेरे देश के लोग
हर पल जातीय दंश का
अपमान झेलते हुए,,,,,
धन्य हैं वे,,,
जो एक गडरिया को
ज्ञान के कारण
अपना देवता मानकर पूजते हैं,
और
धिक् हमें
कि, हम आज भी
जाति ही पूजते हैं ।
,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,
तभी तो बंधुओं !
वो तमावरण को चीरकर
प्रकाश के समुद्रतट में,
समृद्धि की लहरों का मजा ले रहें हैं।
और हम,
प्रकाश के ज्ञानालोक से टपककर,
दरिद्रता के दलदल में
फसते जा रहे हैं।
अफ़सोस !
हमारे समाज से ,,,
जाति! आखिर क्यों नहीं जाती?
                            

                                           

Monday, May 14, 2012

प्यार


जानते हैं हम सब कि
प्यार एक दर्द है, एक कसक है ,
प्यार धड़कन है ,प्यार तड़प है ,
सच, प्यार वो सब कुछ है-
जो एक शायर कहता है...
तथा ,

प्यार एक लालसा है 
प्यार एक आराधना है
प्यार एक तपस्या  है 
प्यार  स्वयं में पूर्ण सत्य  है
सच, प्यार वह सब कुछ है,
जो, एक धर्मशास्त्र कहता है…
लेकिन ,
प्यार, अमिट - अविरल -अविनाशी नहीं
वह तो सिर्फ -
''क्षणिक सम्मोहन का जज्बाती अधूरापन'' है
मैंने अपनी आँखों देखा है
प्यार की परिभाषा को,
कई बार ,समय -परिस्थित और काल के  अनरूप 
बनते - बिगड़ते …