Monday, October 27, 2014

'डुगडुगी'

जबकि, कैलेण्डर के मुताबिक दीपावली थी
मैं हिन्दू होकर भी दीवाली नहीं मना रहा था ।
क्योंकि, पता चल गया था मुझे
अब तक अज्ञात रहा सत्य
कि, रावण अभी जिन्दा है।
और हाँ, मारा था
कभी किसी राम ने
रावण के प्रतिरूप को
रावण को नहीं ।
कविता न समझो, डुगडुगी है यह
कि ,अब-तक
भ्रमवश -
हम-हमारे पूर्वज
मनाते आये हैं
यह त्यौहार
छद्म त्यौहार, आडम्बर के साथ।
जागते रहो की चीख
या यूँ कहूँ
कि चोर पकड़ने जा रही
पुलिस गाड़ी के सायरन की मानिंद
फोड़ते हैं पटाखे
अंधकार को डराने के लिए
और फिर
रख देते हैं यत्र-तत्र
दो-चार दिये
रस्म अदायगी के लिए ..
मान जाओ मेरी बात
और बंद कर दो -
यह झूठी दीवाली ।
पहले पैदा करो
अपनी-अपनी मन की अयोध्या में राम,
क्योंकि -
रावण अब असली रूप में
लंका से निकल
कर चुका है अतिक्रमण
हमारी अपनी बसाई मन की अयोध्या पर ...
इसलिए,
पहले मारना जरुरी हो गया है
मन रूपी अयोध्या के सिंहासन में बैठे रावण को ।
मार सकते हो
तो मारो पहले रावण को
फिर हक से मनाओ
अपनी विजय की दीवाली ।
और यदि,
खुद नहीं मार सकते
तो रुको ,
रोक दो ये फौरेबी जश्न
प्रतीक्षा करो
समाधिस्थ अहिल्या की तरह
अपने-अपने उद्धार के लिए
किसी राम के प्राकट्य की ।
.......
और तब तक
मेरी तरह
तुम भी
बंद रखो
यह नाटकीय जश्न
भगवान के लिए ....।

1 comment:

  1. वाह बेहतरीन अभिव्यक्ति आदरणीय

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